न्यूज जंक्शन 24, चंपावत। देवभूमि के नाम से जाने जाने वाली उत्तराखंड की धरा देवताओं को समर्पित कई परंपराओं के लिए भी विख्यात है। इन्हीं परंपराओं में एक है बग्वाल। यह एक प्रकार का युद्ध है, जो देवी मां वाराही को समर्पित है और चंपावत जिले के देवीधुरा में सावन की पूर्णिमा तिथि को आयोजित होता है। इस बार भी यह परंपरा निभाई गई, जिसमें 10 मिनट तक खूब फल-फूल एक-दूसरे पर फेंके गए। पत्थर भी फेंके गए। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खुद इस परंपरा का गवाह बने। मां वाराही के धाम में करीब 10 मिनट तक चले इस खेल में 230 लोग जख्मी हुए। इनमें तीन की हालत ज्यादा गंभीर हो गई। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
शुक्रवार सुबह ही बग्वाली वीर और दर्शक मां वाराही के धाम में जुटने शुरू हो गए थे। दोपहर करीब एक बजे सीएम धामी भी पहुंचे और पूजा-अर्चना कर बग्वाल की शुरुआत कराई। यह एक तरीके का युद्ध है, जिसमें पहले पत्थर फेंक कर वार किए जाते थे। मगर इस पर रोक लगा दी गई, जिसके बाद फलों और फूलों से वार किए जाने लगे। हालांकि परंपरा निभाने के लिए अब भी कुछ देर पत्थरों से वार किए जाते हैं। इस बार भी यही हुआ। दोनों तरफ से जुटे बग्वालों ने पहले एक-दूसरे पर फूल फेंके। इसके बाद सेब, नाशपाती आदि फलों से एक-दूजे पर वार किए। अंत में कुछ देर पत्थर पर फेंके गए। इस दौरान इन सबसे से बचाव के लिए बग्वालों ने ढाल से खुद को बचाया। सीएमओ डा. केके अग्रवाल ने बताया कि बग्वाल में 200 बग्वाली वीर व 30 दर्शक घायल हुए।
इस दौरान सीएम धामी ने कहा कि संस्कृति और संस्कार के इस प्रदेश में मां बाराही धाम का स्थान अग्रणी है। इस आयोजन को 2021 में राजकीय मेला घोषित किया गया है। मां बराही को प्रसन्न किये जाने के लिए पाषाण युद्ध अर्थात बग्वाल खेला जाता है। बग्वाल से क्षेत्र में खुशहाली आए, फसलों की अच्छी पैदावार हो, क्षेत्रवासी रोगमुक्त हों, निवासियों को अन्न-धन की प्राप्ति हो, ऐसी मेरी प्रार्थना है।
साफे के रंग
गहड़वाल खाम के योद्धा केसरिया, चम्याल खाम के योद्धा गुलाबी, वालिग खाम के सफेद और लमगड़िया खाम के योद्धा पीले रंग के साफे पहनकर शिरकत करेंगे।
क्या है बग्वाल
चार प्रमुख खाम यानी समूह चम्याल, वालिग, गहड़वाल और लमगड़िया खाम के लोग पूर्णिमा के दिन पूजा अर्चना कर एक दूसरे को बगवाल का निमंत्रण देते हैं। पूर्व में यहां नरबलि दिए जाने का रिवाज था लेकिन जब चम्याल खाम की एक वृद्धा के इकलौते पौत्र की बलि की बारी आई तो वंशनाश के डर से उसने मां वाराही की तपस्या की। देवी मां के प्रसन्न होने पर वृद्धा की सलाह पर चारों खामों के मुखियाओं ने आपस में युद्ध कर एक मानव बलि के बराबर रक्त बहाकर कर पूजा करने की बात स्वीकार ली। तभी से बगवाल शुरू हुई है।