हम और समाज न चाहते हुए भी टूट रहे हैं, बंट रहे हैं। विश्वास की कड़ी जो हमें एक दूसरे से बांधती है कमज़ोर पड़ रही है, टूट सी रही है। शक का माहौल पैदा हो रहा है। पहले जो हम एक अनजान व्यक्ति, भिखारी या अन्य किसी जरूरतमंद की बेशर्त मदद भी कर दिया करते थे, लेकिन अब कुछ करने से पहले एक नहीं सौ बार सोचेंगे। संभवत अधिकतर लोग तो ऐसा करेंगे ही नहीं और ऐसे लोगों को गलत भी नहीं ठहराया जा सकता; आख़िर अपनी जान की हिफाज़त कौन नहीं करना चाहता..!!
इसमें संदेह नहीं कि थूक गैंग को स्लीपर सेल्स की तर्ज़ पर एक सुनियोजित साजिश के तहत एक्टिवेट करने का प्लान रहा होगा। उनके मुख्यालय से यही आदेश हुआ होगा कि धीरे-धीरे पूरे देश में फैल जाओ और बर्बादी को अंजाम दो। अभी ऐसा नहीं कि प्लान डीएक्टिवेट हो गया है। घटनाएं तो अब भी आ रही हैं पर अच्छा है कि इसका पर्दाफाश तो हो ही चुका है..जिसके लिए सरकार व सब एजेंसियां तारीफ की पात्र है। हाँ इसको डिएक्टिवेट करने की दिशा में सरकार तो अपना काम कर ही रही है, हमें चाहिए कि हम खुद अपने आसपास होने वाली गतिविधियों के प्रति सजग रहें और अगर कोई भी संदिग्ध व्यक्ति ऐसी कोई हरकत करता नज़र आये तो पहले अपने आप को बचायें और उसके बाद संबंधित लोगों को बताएं, और पुलिस को रिपोर्ट करें।
थूक सबसे कारगर हथियार है और थूकना सबसे आसान तरीका, अपने मंसूबों को अंजाम देने का, क्योंकि इसमें कोई पारम्परिक हथियार लेकर तो चलना नहीं है, बस पहले बस खुद इन्फेक्ट होना है और फ़िर जैसे कुत्ता घड़ी घड़ी कोने कोने में मूतता फिरता है, आपको भी अपने टारगेट पर थूकते फिरना है। कितना आसान है। पुलिस का भी कोई डर नहीं, क्योंकि कोई चेक किया जाने वाला हथियार तो इनके पास है ही नहीं, लेकिन हाँ, इनके पास तो बंदूक, बम, हैंड ग्रेनेड से भी खतरनाक हथियार है, इनका अपना स्वनिर्मित थूक…जहाँ पड़ेगा पूरा असर करेगा… मिशन भी पूरा हो जाएगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा..!! विश्वास नहीं होता कि लोग देश के ख़िलाफ़ इतनी घिनौनी सोच रखते हैं।
और हाँ इस मोबाइल स्लीपर सेल्स के अलावा घर बैठकर भी इस जिहाद को अंजाम दिया जा सकता है, जैसा कि देखने में आया कि कुछ लोग नोटों पर थूक लगा रहे हैं। अब भला नोट लेने से कौन मना करेगा। क्या ऐसी सोच रखने वाले लोगों के खिलाफ देश को तोड़ने के जैसी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए?क्या ऐसी सोच रखने वालों को देश मे रहने का अधिकार होना चाहिए?क्या ऐसे लोगों को देशद्रोह जितना अपराधी नहीं मानना चाहिए? ये देश के खिलाफ सुनियोजित साजिश है कि नहीं?
आज सभी ये सोचकर परेशान हैं कि न जाने हमारे सामने वाला व्यक्ति किस कृत्य को अंजाम देने की फ़िराक में हो? न जाने हमारे साथ या हमारे बच्चों के साथ क्या गलत करने जा रहा हो? क्या हम अपने मासूम व अनजान बच्चों को अकेले बाहर भेजेंगे? आज ये सवाल क्या हर किसी इंसान के जहन में नहीं कौंधते होंगे, या नही कौंधने चाहिए? इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि ये डर हम सबमें काफ़ी अंदर तक घर कर गया है। ये डर हमें व समाज दोनों को कमज़ोर करता है और लोगों से कम व न मिलने को भी मजबूर करता है, कि कहीं हम किसी साजिश का शिकार न हों जाएं…शायद इसीलिए आजकल लोगों ने अंजान या समुदाय विशेष के सब्जी फल वालों से भी दूर रहना शुरू कर दिया है। पता नहीं ये शक यहीं रुकेगा या कितना आगे जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। देखिये कुछ लोगों की ग़लती की सज़ा किस तरह पूरा समाज भुगतता है।
डॉक्टर्स जिनको हम भगवान का रूप मानते हैं, उन्हें भी इन जिहादियों ने अपना शिकार बनाया। बाल्कि उन्हीं से शायद इस ज़िहाद की शुरुआत हुई थी। अभी पिछले दिनों में न जाने कितनी ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनमे थूकने के साथ ही महिला डॉक्टर्स से अश्लीलता व अभद्रता भी की गई।
इस तकलीफ या सवालों के चलते अगर कोई किसी थूकनेवाले पर हाथ उठा दे या थोड़ा क़ानून हाथ में लेले तो शायद देश की सहिष्णुता व लोकतंत्र के तथाकथित रखवालों पर साँप लोट जाएगा और उनका रोना धोना शुरू हो जाएगा। हालांकि मैं कानून हाथ मे लेने का समर्थन नहीं करता, लेकिन लोगों के आक्रोश और भावनाओं का क्या?!
मेरे पूरे जीवनकाल में मैंने इस तरह की साजिश व लड़ाई कभी नहीं देखी। अंतर्मन क्या क्या सोचता है और क्या क्या कहता है मुझसे और क्या अंतर्द्वंद हो रहा है उस वक़्त, सब कुछ लिखा भी नहीं जा सकता।
एक ही बात हम सभी से कि सजग रहें, सतर्क रहें…!!!
लेखक के बारे में
संजय बरेली रहने वाले हैं। आजकल दिल्ली में कार्यरत हैं। तकरीबन 20 साल तक एडवरटाइजिंग व मार्केटिंग के क्षेत्र में विभिन्न एडवरटाइजिंग एजेंसीज व टाटा डोकोमो में कार्य करने के बाद कुछ अपना करने की चाह जागी तो नौकरी छोड़ दी। आजकल रोबोटिक्स व ऑटोमेशन के क्षेत्र में अपना स्टार्टअप चला रहे हैं। बरेली कुछ व्यक्तिगत काम से आये थे लेकिन लॉकडाउन के चलते यहीं रह गए। पढ़ना व लिखना उनका शौक है। हिन्दी में कविता के माध्यम से भी विचार व्यक्त करते हैं। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने व कार्य करने के बावज़ूद हिन्दी भूले नहीं हैं बल्कि इसे पसंद करते हैं।
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